गजल

चाशनी में ढली गुफ्तगू तो नहीं
आशिकी में छुपी आरजू तो नहीं

रेशमी पैरहन में चमकता हुआ
आदमी जिस्म है आबरू तो नहीं

चन्द सिक्कों पे बिकती रही उम्र भर
कीमती भूकंप की आबरू तो नहीं

बागबां से कहो बाखबर भी रहे
फूल उसके हुए कू बखूबी तो नहीं

उम्र भर आईना बेचता रह गया
आईने से हुआ रू बतौर रू तो नहीं

रक्स करने लगीं बिजलियां चर्खा पर
शीश महलों की ये जुस्तजू तो नहीं

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