मिर्जा गालिब

तुम जानो तुमको गैर से जो रस्मो राह हो
मुझको भी पुछते रहो तो क्या गुनाह हो

बचते नहीं मुआखजा-ए-रोजे हश्र से
कातिल अगर रकीब है तो तुम गवाह हो

उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार
मरता हूँ मैं कि ये न किसी की निगाह हो

जब मैकदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की कैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई खानकाह हो

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ सब दुरुस्त
लेकिन खुदा करे वो तेरी जलवागाह हो

'गालिब'भी गर न हो तो कुछ ऐसा जररूर नहीं
दुनिया हो या रब और मेरा बादशाह हो

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